‘संरक्षित खेती’ में अप्रतिम योगदान

प्रो. ब्रह्मा सिंह को भारत में संरक्षित खेती का जनक माना जाता है। उन्होंने ‘न्यू एज प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन’ पत्रिका का संपादन भी किया और इसके जरिए विदेशों की संरक्षित खेती से देश के लोगों को परिचित कराया। एक रिपोर्ट संरक्षित खेती के बारे में…

भारत में संरक्षित खेती को नया आयाम देने का मुख्य श्रेय देश के प्रसिद्ध बागवानी विशेषज्ञ पद्मश्री प्रो. ब्रह्मा सिंह को जाता है या इसे यूं भी कह सकते हैं कि देश में नए युग की संरक्षित खेती का आगाज उन्हीं के द्वारा हुआ। प्रो. ब्रह्मा सिंह ने ‘न्यू एज प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन’ पत्रिका का संपादन भी किया और इसके जरिए विदेशों की संरक्षित खेती से देश के लोगों को परिचित कराया। उन्होंने अपने संस्थान ‘ब्रह्मा सिंह हॉर्टिकल्चर फाउंडेशन’ (बीएसएचएफ), पत्रिका ‘न्यू एज प्रोटेक्टेड कल्टीवेशन’, वेबीनार, सेमिनार आदि के माध्यम से इजराइल, अमेरिका, जर्मनी, जापान, रूस, चीन, तुर्की, बेल्जियम, ब्राजील, न्यूजीलैंड आदि देशों की खेती की उच्च तकनीकियों को लेकर चर्चा की और यहां की तकनीक को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित किया। उनके इन प्रयासों के चलते ही उन्हें भारत में संरक्षित खेती का जनक कहा जाता है।

सरंक्षित खेती के क्षेत्र में प्रो. ब्रह्मा सिंह का योगदान अप्रतिम है और इसे सदैव याद किया जाता रहेगा क्योंकि आने वाले समय में देश के पास संरक्षित खेती अपनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। इसका कारण यह है कि सवा अरब की आबादी के 35-40 प्रतिशत लोग शहरों में रह रहे हैं। शहरी आबादी का यह अनुपात वर्ष 2025 तक लगभग 60 प्रतिशत तक बढ़ने की उम्मीद है। दूसरी ओर बढ़ती शहरी जनसंख्या खाद्य आपूर्ति पर भी गभीर दबाव बढ़ा रही है। इसके चलते उचित गुणवत्ता का भोजन मिल पाना मुश्किल है। इसका समाधान सिर्फ और सिर्फ संरक्षित खेती से ही मिल सकता है। शायद इसीलिए प्रो. ब्रह्मा सिंह ने संरक्षित खेती को विश्वविद्यालयों में कोर्स का हिस्सा बनाने की वकालत की थी ताकि विश्वविद्यालय स्तर से ही इसके विशेषज्ञ तैयार हो सकें। आइए, इसे विस्तार से समझते हैं।

क्या है संरक्षित खेती?

संरक्षित खेती आधुनिक तकनीक की वह संरचना है, जिसमें एक नियंत्रित वातावरण में फसलों की खेती की जाती है। इसमें कीट अवरोधी नेट हाउस, ग्रीन हाउस, नवीनतम तकनीक से लैस पॉलीहाउस, प्लास्टिक लो-टनल, प्लास्टिक हाई-टनल, प्लास्टिक मल्चिंग और ड्रिप सिंचाई का इस्तेमाल होता है।

भारत में संरक्षित खेती प्रौद्योगिकी वाणिज्यिक उत्पादन के लिए लगभग तीन दशक ही पुरानी है, जबकि विकसित देशों जैसे जापान, रूस, ब्रिटेन, चीन, हॉलैंड और अन्य देशों में दो सदी पुरानी है। इजराइल एक ऐसा देश है, जहां किसानों ने अच्छी गुणवत्ता वाले फल, फूल और सब्जियों को कम पानी वाले रेगिस्तानी क्षेत्रों में उगाकर इस तकनीक से अच्छे उत्पादन के साथ बढ़िया मुनाफा भी कमा रहे हैं। हॉलैंड ने पॉलीहाउस की उन्नत तकनीक विकसित करके दुनिया के फूल निर्यात जगत में 70 प्रतिशत का योगदान दिया है।

संरक्षित खेती के अंर्तगत आने वाली संरचनाएं

हाईटेक पॉली हाउस
यह संरक्षित संरचना सभी संरचनाओं में महंगी एवं नवीनतम तकनीक है क्योंकि इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले सभी आॅपरेशन जैसे सिंचाई, तापमान नियंत्रण, प्लास्टिक की दीवारों को ऊपर और नीचे करना आदि कम्प्यूटर द्वारा संचालित किया जाता है। इस तरह की संरचनाओं का प्रयोग उच्च मूल्यवान वाली फसलें उगाने में किया जाता है। इन संरचनाओं की लागत अधिक भले होती है, लेकिन इससे फसलों का उत्पादन अन्य संरक्षित संरचनाओं की तुलना में अधिक एवं गुणवत्तापूर्ण होता है।

प्राकृतिक हवादार पॉली हाउस

इन संरचनाओं में सिंचाई, उर्वरता एवं सभी अन्य सभी कार्य मैन्युअल रूप से संचालित किया जाता है। इन संरचनाओं की लागत उच्च तकनीक से कम, लेकिन दूसरों की तुलना में अधिक होती है। इसमें खड़ी संरचना की दीवार स्टेनलेस स्टील और छत प्लास्टिक की दीवारों से बनी होती है। निर्माण में उपयोग की जाने वाली पॉलिथीन शीट पराबैंगनी प्रकाश के प्रवेश को रोक कर कार्बन डाईआॅक्साइड का संरक्षण करती है, जिससे पौधे के विकास में वृद्धि होती है। पॉली हाउस के अंदर का तापमान और नमी बाहर की स्थिति से अधिक होता है, जो कि प्रकाश संश्लेषण को बेहतर एवं
पौधों के विकास को एक समान बनाता है।

लकड़ी और बांस

ये संरचनाएं ट्यूबलर संरचनाओं के समान होती हैं, लेकिन खड़ी संरचना बांस या लकड़ी से बनी होती है। हालांकि ट्यूबलर संरचना की तुलना में इन संरचनाओं का जीवन छोटा है। इस पॉली हाउस में आंतरिक वातावरण को नियमित करने के लिए किसी विशिष्ट नियंत्रण उपकरण का उपयोग नहीं किया जाता है। जहां बिजली की उपलब्धता आसानी से नहीं होती है तो ऐसे दुर्गम क्षेत्रों में प्राकृतिक वायु संवाहित (नेचुरली वैंटीलेटर) पॉली हाउस का निर्माण करते हैं।

हाईटेक नेट हाउस या ग्रीन हाउस

हाईटेक ग्रीन हाउस अत्याधुनिक जलवायु नियंत्रित सुविधा, प्रकाश संश्लेषक सक्रिय विकिरण सुविधा, उन्नत वेंटिलेशन और स्क्रीनिंग सिस्टम, प्लांट ट्रेलिंग, नवीनतम माइक्रो सिंचाई और फर्टिगेशन सिस्टम से लैस होते हैं। प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों के बावजूद विभिन्न बागवानी फसलों के लिए स्वस्थ पौधे एवं उनको समग्र विकास प्रदान करने के लिए वास्तविक नवाचारों में से एक माना जाता है। यह फसलों को हानिकारक पराबैंगनी और कुछ अवरक्त विकिरण से बचाता है। इसके साथ ही यह पौधों को अत्यधिक तापमान से बचने, हवा एवं मिट्टी की नमी को बनाए रखने में मदद करता है। इस संरचना का उपयोग अत्यधिक धूप, ठंड, तेज हवा एवं कीट और पक्षियों के प्रति मूल्यवान फसलों के संरक्षण के लिए किया जाता है। हाईटेक ग्रीन हाउस 500 वर्गमीटर से लेकर 20000 वर्गमीटर क्षेत्रफल के अनुकूलित आकार में बनाए जा सकते हैं।

प्लास्टिक टनल पॉली हाउस

ये छोटी संरचनाएं नर्सरी बनाने के लिए प्रभावी संरचनाएं समझी जाती हैं। ये पौधों को प्रतिकूल जलवायु परिस्थितियों जैसे बारिश, हवा, ओलावृष्टि आदि से बचाती हैं। इनका उपयोग मुख्य रूप से नर्सरी बढ़ाने के लिए किया जाता है। ये संरचनाएं शुरुआती बीज अंकुरण में मदद करती हैं और इनकी मदद से वर्ष भर खेती संभव है। यह संरचनाएं निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं-

प्लास्टिक लो-टनल: यह 1-3 माह के लिए सब्जियों के ऊपर बनाई जाने वाली अस्थायी संरचना है। यह देखने में सुरंग की तरह लगती है इसलिए इस संरचना को टनल की संज्ञा दी जाती है। इस लो-टनल संरचना को बनाने के लिए 2-3 मीटर लंबी व 0.6-1.0 सेंटीमीटर मोटी जीआई (लोहे) सरिया या बांस की फट्टियों को अर्द्ध गोले/चंद्राकार के आकार में 1-1.5 मीटर चौड़े बेड पर 2 मीटर की दूरी पर गाड़ देते हैं। इस प्रकार बने टनल के ऊपर 25-30 माइक्रोन की पारदर्शी पॉलीथीन सीट से पूरी तरह से ढक देते हैं। इस प्रकार 2.5-3.0 फीट ऊंचाई की टनल बनकर तैयार हो जाती है। प्लास्टिक लो-टनल की तकनीक अधिकांशत: मैदानी क्षेत्रों में कद्दूवर्गीय सभी सब्जियों की अगेती खेती को बढ़ावा देने के लिए अपनाई जाती है। इस तकनीक से उत्पादन 1.5-2 माह पहले बाजार में आने से किसानों को बहुत अधिक लाभ प्राप्त होता है।

प्लास्टिक हाई-टनल (वॉक-इन टनल) पॉली हाउस: यह संरचना प्लास्टिक लो-टनल पॉली हाउस का बड़ा रूप है। इसके अंदर आसानी से आ-जा सकते हैं इसलिए इसे वॉक-इन टनल कहते हैं। वॉक-इन टनल की संरचना यूवी फिल्म से कवर की जाती है, जो सभी प्रकार की फसलों जैसे फल, फूल और सब्जियों के लिए उपयुक्त होती है। ये संरचनाएं आकार में छोटी एवं प्रारंभिक लागत कम होने के कारण अधिकतर किसानों द्वारा अपनाई जाती हैं। इस संरचनाओं में तापमान पर नियंत्रण नहीं होता है, लेकिन आंतरिक जलवायु बाहर से भिन्न होती है। समशीतोष्ण क्षेत्रों के सब्जी उत्पादक किसान कम लागत वाली संरक्षित संरचनाओं (पॉली हाउस) में जल्दी फसल उगाकर अपनी आय बढ़ा सकते हैं।

प्लास्टिक मल्चिंग
खेत में लगे पौधों की जमीन को चारों तरफ से प्लास्टिक फिल्म से सही तरीके से ढकने की प्रणाली को प्लास्टिक मल्चिंग कहते है। यह फिल्म अनेक प्रकार एवं कई रंगों में आती है। भूमि में नमी संरक्षण, भूमि के तापक्रम को नियंत्रित करने एवं भूमि के सोलेराइजेशन आदि की आवश्यकतानुसार प्लास्टिक मल्च फिल्म का रंग काला, पारदर्शी, दूधिया, प्रतिबिंबित, नीला, लाल आदि का चयन किया जा सकता है। यह तकनीक खेत में मिट्टी के कटाव को रोकने में सहायक होती है तथा बागवानी में होने वाले खरपतवार नियंत्रण एवं पौधों को लंबे समय तक सुरक्षित रखने में सहायक होती है। इस तकनीक से भूमि की कठोरता कम होने के कारण पौधों की जड़ों का विकास अच्छा होता है। सामान्यत: 90-180 सेंटीमीटर की चौड़ाई वाली फिल्म ही प्रयोग में लाई जाती है। खुले खेतों में उगने वाली अधिकांश सब्जियों जैसे टमाटर, कद्दू एवं गोभी वर्गीय आदि फसलों के लिए प्लास्टिक मल्चिंग तकनीक उपयोगी साबित होती है। इस तकनीक से सामान्य खेती की तुलना में 30-40 प्रतिशत उपज एवं गुणवत्ता बढ़ जाती है। इस तकनीक द्वारा पारंपरिक खेती की तुलना में लगभग 20-25 प्रतिशत उर्वरकों की बचत के साथ 40-50 प्रतिशत सिंचाई जल की भी बचत होती है। इसके साथ खरपतवार नियंत्रण पर होने वाले खर्च में भी लगभग 80-90 प्रतिशत की कमी आती है।

वर्टिकल फार्मिंग
हाइड्रोपोनिक्स: यह बिना मिट्टी की खेती है। इस पद्धति में पौधे अपने वृद्धि एवं विकास के लिए आवश्यक पोषक तत्वों के लिए मिट्टी पर नहीं बल्कि पोषक तत्व घोल पर निर्भर रहते हैं। पौधों को सहारा देने के लिए विभिन्न पदार्थों जैसे बालू, कंकड़, नारियल का बुरादा (कोकोपीट), परलाइट आदि को किसी गमले, बैग, ट्रफ, नलिका टंकी आदि, जिसमें पोषण के लिए घोल का बहाव आसानी से बना रहे, में भरकर उनमें पौधे लगाये जाते हैं। इस पद्धति को अपनाने से पौधे मिट्टी जनित बीमारियों के प्रकोप से बचे रहते हैं। इस तकनीक से प्राप्त उत्पादों की गुणवत्ता उच्च कोटि की होती है जिनकी बाजार में मांग और कीमत दोनों ही अधिक होते हैं।

एरोपोनिक्स: एरोपोनिक्स खेती का एक पर्यावरण के अनुकूल तरीका है, जिसमें जड़ें हवा में लटकी रहती हैं और पौधे बिना मिट्टी के आर्द्र वातावरण में बढ़ते हैं। यह हाइड्रोपोनिक्स का एक प्रकार है, जहां पौधों के बढ़ने का माध्यम और बहते पानी दोनों अनुपस्थित होते हैं। इस विधि में पौधों की जड़ों पर पानी और पोषक तत्त्वों के घोल का छिड़काव किया जाता है। यह तकनीक किसानों को ग्रीन हाउस के अंदर आर्द्रता, तापमान, पीएच स्तर और जल चालकता को नियंत्रित करने में सक्षम बनाती है।

एक्वापोनिक्स: एक्वापोनिक्स एक प्रणाली है, जिसमें एक बंद प्रणाली के •ाीतर हाइड्रोपोनिक्स और जलीय खेती की जाती है। एक्वापोनिक्स प्रक्रिया में तीन जैविक घटक होते हैं- मछलियां, पौधे और बैक्टीरिया। इस प्रणाली में पौधों और मछलियों के बीच एक सहजीवी संबंध पाया जाता है; अर्थात मछली का मल पौधों के लिये उर्वरक के रूप में उपयोग किया जाता है, जबकि पौधे मछली हेतु जल को साफ करते हैं।

संरक्षित खेती के अंतर्गत उगाई जाने वाली फसलें

सब्जियां: टमाटर, शिमला मिर्च, खीरा, पत्तागोभी, फूलगोभी, ब्रोकोली, हरी प्याज, सेम, मटर, चुकन्दर, मिर्च, धनिया, बैंगन, स्क्वैश, भिंडी, करेला, शलगम, मूली, गाजर, अदरक, मिर्च, लौकी एवं तोरई आदि।

फूल: गुलाब, गुलदाउदी, आॅर्किड्स, फॅर्न, कारनेशन, फ्रेशिया, एन्थोरियम, ग्लेडिओलस, लिली, रसकस, गनीगोजैन्घास, एल्सट्रोनेटिया, जरबेरा, बिगोनिया, टूयूलिप एवं डेजी आदि।

फल: स्ट्राबेरी, अंगूर, सिट्रस, आलू बुखारा, आडू, केला, पपीता एवं खुमानी आदि। ल्ल

संरक्षित खेती को बनाया जाए विश्वविद्यालयों में कोर्स का हिस्सा

(आईसीएआर-सीआईएसएच, लखनऊ द्वारा विश्व खाद्य दिवस के अवसर पर 16 अक्टूबर 2021 को आयोजित ‘खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए बागवानी फसलों की संरक्षित खेती’ पर विषय पर प्रो. ब्रह्मा सिंह का एक वक्तव्य)

उच्च मूल्य वाली बागवानी फसलों की संरक्षित खेती ने भारतीय बागवानी उद्योग के सामने आने वाले कुछ प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने के लिए काफी ध्यान आकर्षित किया है। नवोन्मेष संचालित इस क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने और गुणवत्तापूर्ण उत्पादन करने, फसल के मौसम का विस्तार करने, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, खेती के तहत मामूली उत्पादक भूमि लाने तथा महिलाओं, युवाओं और भूमिहीन मजदूरों के लिए रोजगार के अवसर पैदा करके बागवानी उत्पादन में क्रांतिकारी बदलाव की अपार संभावनाएं हैं।
संरक्षित खेती के तहत टमाटर और शिमला मिर्च जैसी फसलों की औसत पैदावार अक्सर खेत में सामान्य खेती की तुलना में 10 गुना अधिक होती है। संरक्षित खेती ने लद्दाख जैसे पर्यावरण की दृष्टि से कठोर क्षेत्रों में बागवानी उत्पादन में क्रांति ला दी है। इन लाभों को देखते हुए निजी उद्यमी संरक्षित बागवानी में तेजी से निवेश कर रहे हैं। प्रौद्योगिकी में निरंतर सुधार को देखते हुए संरक्षित खेती धीरे-धीरे भारतीय बागवानी उद्योग के स्वचालन का मार्ग प्रशस्त कर रही है, जिसमें शिक्षित और नव युवाओं को बागवानी की दुनिया की ओर आकर्षित करने की अपार क्षमता है।

इस क्षेत्र में जलवायु-नियंत्रित हाई-टेक बागवानी, जैव-फिल्म (बायोडिग्रेडेबल) मल्चिंग, सस्ती हाइड्रोपोनिक्स उत्पादन तकनीक, एरोपोनिक्स, मछली की खेती के लिए एक्वापोनिक्स, सूक्ष्म साग, तैरती खेती, ऊर्ध्वाधर खेती आदि उभरते हुए अवसर हैं। संरक्षित खेती जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बागवानी फसलों की सुरक्षा करते हुए अधिक उत्पादन का सबसे अच्छा साधन है।

हम जैसे-जैसे स्वचालित संरक्षित खेती प्रौद्योगिकियों की ओर बढ़ते हैं, बागवानी की यह ज्ञान-गहन शाखा निश्चित रूप से पेशे के लिए बहुत आवश्यक गौरव लाएगी तथा खेती को एक आनंदमय और पुरस्कृत गतिविधि बनाना संभव है। नीति निमार्ताओं से संरक्षित खेती पर एक राष्ट्रीय संस्थान स्थापित करने का आह्वान करने की आवश्यकता है तथा संरक्षित खेती को विश्वविद्यालयों में कोर्स का हिस्सा बनाकर अधिक संख्या में विशेषज्ञों का विकास किया जा सकता है।