Environmental consciousness in the Vedas

वेदों में पर्यावरण चेतना

डॉ. मनीष के. शर्मा,
डॉ. पी.ए. साबळे, के.जेड. वाघेला, डॉ. दिप्ती परमार, डॉ. जी.एस. पटेल एवं डॉ. पीयूष वर्मा

बागायत महाविधालय, स.दा. कृषि विश्वविधालय, जगुदन (गुजरात)

विश्व में जहां भी पर्यावरण को नजरअंदाज किया गया, आज वहा अस्तित्व विलुप्त होने की कगार पर हैं। स्वस्थ पर्यावरण को पनपने में हजारों वर्ष लग जाते हैं और इसका संरक्षण और नई पीढ़ी तक पहुँचाना एक बहुत ही अहम कार्य होता हैं । पर्यावरण न तो युद्धों को बर्दाश्त कर सकता है न ही भौतिक सुविधाओं से निर्मित प्रदूषण को। पर्यावरण को वही समझ भी वो ही सकता है जो इससे तालमेल कर जीता हैं । किसी भी देश की जीवनशैली से उसका पर्यावरण संतुलन हटा लो, उस देश को बर्बाद होने में बहुत थोड़ा समय लगेगा ।

हम सौभाग्यशाली है की हमें भारत की अद्वेत वैदिक दर्शन में पर्यावरण संरक्षण विरासत में मिला हैं । हमारे तत्त्वदर्शी ॠषियों ने सदैव प्रकृति को आराधना एवं आदर्श जीवनशैली द्वारा मानव और पर्यावरण का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है, लेकिन आज के भौतिकतावादी युग में बढ़ते प्रदुषण के कारण पर्यावरण एक गंभीर चर्चा का विषय हो गया हैं । आज फिर इस बात की जरूरत हैं की पर्यावरण संरक्षण की वैदिक चेतना को आमजन में फैलाने के लिए प्रयास हो और खासतौर पर युवा पीढ़ी में । ये बात निश्चित है की इन वैदिक परम्पराओं की वैज्ञानिकता को समझने के लिए सुक्ष्म दृष्टि चाहिए, वो आज के युवाओं में हैं । वे इन रहस्यों को समझ सकते है और अपना सकते हैं । आइये आज हमारी पर्यावरण संरक्षण की विरासत को समझे और गौरवान्वित होकर अपनाएँ –

आज पूरे विश्व में पर्यावरण एक गंभीर चर्चा का विषय बना हुआ है । जी-20 जैसा अंतर्राष्ट्रीय मंच भी अछूता नहीं है । पर्यावरण पर चर्चा-परिचर्चा भारत के संदर्भ में कोई नया विषय नहीं है। वैदिककाल से भारतीय धर्म-दर्शन एवं संस्कृति के पुरोधाओं ने पर्यावरण के विषय में ही सोचा और पर्यावरण सुरक्षा को धार्मिक-भावना से जोड़कर उसे सांस्कृतिक परंपरा का अभिन्न अंग बना दिया । मानव और पर्यावरण का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति मनुष्य को प्रकृति से ही प्राप्त होती हैं। सूर्यप्रकाश, वायु, जल, वर्षा, भूमि, वनस्पति- पेड़-पौधे, पशु-पक्षी , वन्यजीव, पर्वत-पहाड़, नदी-तालाब, कीटाणु आदि सभी समाहित होकर पर्यावरण की संरचना करते हैं। संतुलित पर्यावरण का ताना- बाना ही पृथ्वी पर जीवन- प्रक्रिया ठीक से चलाने में मदद करता हैं। पर्यावरण का अभिप्राय है प्रकृति प्रदत समस्त भौतिक, सामाजिक, वातावरण के साथ ही जैविक स्थिति। वेदों में जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि, वनस्पति, अन्तरिक्ष, आकाश आदि के प्रति असीम श्रद्धा प्रकट करने पर अत्यधिक बल दिया गया है। हमारे तत्त्वदर्शी ॠषियों ने सदैव प्रकृति की आराधना, अर्चना एवं प्रार्थना कर पारिस्थितिकी संतुलन को कायम रखा। उन्होंने पर्यावरण के शुद्धिकरण के लिए शांति स्रोतों का यजुर्वेद (२३/५२) में स्तवन किया –

‘‘ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: ।
वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्मशान्ति: सर्वं शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥’’

मानव देह भी अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी एवं आकाश पंच तत्वों से निर्मित है, उनमें एक के अभाव में भी जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । इन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए वेदों में स्तुति की गई है तथा उन्हें देवता मानकर धार्मिक भावना से जोड़ा गया है ताकि वे लोक-आस्था का विषय बने रहें । परंतु दुर्भाग्य है कि आज हम इन पंचभूत को नमन करने के बजाय प्रदूषित कर रहे हैं । फिर भला सदैव हमारा अस्तित्व खतरे में क्यों नहीं होगा? वेद साक्षी है कि हमने सदैव प्राकृतिक संसाधनों कीं पूजा की और कहा गया है कि –

‘‘यो देवोद्रग्नौ, योदूप्सु यो विश्व भवनमाविवेश ।
यो ओषधिक्ष यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नम: ॥’’ अथर्ववेद (१२/१/३१)

अर्थात जो अग्नि, जल, आकाश, पृथ्वी एवं वायु से आच्छादित है तथा जो औषधियो एवं वनस्पति में भी विधमान है, उस (पर्यावरण) देव को हम नमस्कार करते हैं। ‘‘माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्याह्व वेदों में धरती को ह्यमाँ’’ कहा गया है। धरती माता हमें अपनी गोद में खिलाती हैं तथा हमारे पाद-प्रहारों का आघात सहन करती है। इन सबके प्रति हम कृतघ्न कैसे को सकते हैं इसीलिए अथर्ववेद में कहा गया है –

‘‘यास्ते प्राची: प्रदिशो या उदीचीर्यास्ते भूमे अधराद्याश्च पश्चात।
स्योनास्ता मह्यं चरते भवन्तु मा नि पप्तं भुवने शिश्रियाण:॥’’

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‘‘जिस धरती पर वृक्ष, वनस्पति एवं औषधियाँ हैं, जहाँ स्थिर और चंचल (स्थावर और जंगम) सबका निवास है, उस विश्वंभरा धरती (मातृभूमि) के प्रति हम कृतज्ञ हैं, हम उसकी स्वतंत्रता की प्राणपण से रक्षा करेंगे।’’
ऋग्वेद में पृथ्वी को माता स्वरूप मानकर उसकी स्तुति करते हुए कहा गया है कि हे पृथ्वी माता ! हमें सोत्साह उत्तम मार्ग की ओर ले चल। तू हमें पीड़ा न दे । हमारे लिए सुखदायी बन। हे सर्वोत्पादिके ! जैसे माता पुत्र को अपने आँचल से ढंकती है, वैसे तू भी रक्षक बन ।

‘‘उच्छ वञ्चस्व पृथिवि मानि बाधथा: सूपायनास्मै भव सूपवञ्चना ।
माता पुत्रं तथा सिंचाभ्येनं भूम ऊर्णुहि ॥’’ अथर्ववेद (१०/१८/११)

समस्त मानव प्राणियों के जीवन का आधार यह धरती माता ही है, उसी की गोद में पल-बढ़कर सभी अपना जीवन निर्वाह करते हैं। हमें जीवन में जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सुख पृथ्वी की कृपा से है।
‘‘इसा भूया उषसामिव क्षा यद्ध क्षुमन्त: शवसा समायन ।

अस्य स्तुतिं जरितुर्भिक्षमणा आ न: ॥’’ (ऋग्वेद, १०/३५/२)

इन पंक्त्तियो के भाव आज के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार सम्प्रेषित होता है कि धरती का हम सदियों से दोहन करते आये हैं ताकि मनुष्य का जीवन और स्वास्थ सदा बना रहे, परन्तु आज मनुष्य अपने स्वार्थ के कारण स्वंय को खतरे में डाल लिया है। हमें पूर्वकाल के तथ्यों को ह्रदयंगम करने की पुन: आवश्यकता है, ताकि संतुलित पर्यावरण का विकास हो सके।

जल का हमारे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। आज कहा जाता है जल ही जीवन है। जल का हमारे स्वास्थ एवं खुशहाली से बहुत गहरा संबंध है । जीव तथा वनस्पति की मूलभूत आवश्यकता के लिए जल अपरिहार्य है । जल व जीवन को एक दुसरे का पर्याय कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। इसलिए, वेदों में अनेक सन्दर्भों में उसके महत्त्व पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। ऋग्वेद (१/२३/२४८) में ‘अप्सु अन्त: अमृतं, अप्सु भेषजं’ के रूप में जल का वैशिष्ट्य बताया गया है। अर्थात, जल में अमृत है, जल में औषधि-गुण विद्यमान रहते हैं। अस्तु, आवश्यकता है जल की शुद्धता-स्वच्छता को बनाए रखने की । जनसंख्या वृद्धि तथा अन्य कारणों से पीने का पानी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है, जिसमें प्रमुख कारण जल प्रदुषण भी है । नदियों के किनारे ही हमारी सभ्यता का विकास हुआ परन्तु आज हम इन नदियों को प्रदूषित करने में पीछे नहीं हैं । अत: आज हम वेदों का अनुसरण कर जल प्रदूषण जैसी समस्या का समाधान कर पायेंगे । क्योँकि हमारी पुरातन संस्कृति में स्वच्छ पेयजल की प्राप्ति के लिए ॠषि जल तत्व पर विचार करते हुए प्रार्थना करता है –

‘‘शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु’’
(अथर्ववेद, १२/१/३०)

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इसीलिए नदियों, तालाबों व पोखरों आदि में मल-मूत्रादि विसर्जन को पाप कर्म समझा जाता है। जल प्रदूषण के प्रति इतनी जागरूकता आज से सैकड़ों वर्ष पुर्व हमारी संस्कृति में देखने को मिलती है जल की गुणवत्ता का हमारे ऋषियों को पहले से ज्ञान था । सदानीरा नदियाँ इस धरा के वक्षस्थल को निरंतर सींचती रहती हैं और प्राणिमात्र को पेयजल उपलब्ध कराती हैं, अत: वे भी हमारे लिए वंदनीय हैं । इन पापनाशिनी नदियों के तटों एवं संगम स्थलों पर पवित्र तीर्थ स्थान है । पतित पावनी गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियों की स्तुति की गई है –
‘‘इमं मे गंगे यमुने सरस्वति शतुद्रि स्तोमे सचतापरूष्णया ।
असिकन्या मरूदृधे वितस्तयाजीर्कीये श्रृबुह्राया सुषोमया ॥’’
(अथर्ववेद, १२/१/३१)

निस्सन्देह, जल-सन्तुलन से ही भूमि में अपेक्षित सरसता रहती है, पृथ्वी पर हरीतिमा छायी रहती है, वातावरण में स्वाभाविक उत्साह दिखाई पड़ता है एवं समस्त प्राणियों का जीवन सुखमय तथा आनन्दमय बना रहता है:

‘‘वर्षेण भूमि: पृथिवी वृतावृता सानो दधातु भद्रया प्रिये धामनि धामनि’’ (अथर्ववेद, १२/१/५२)

वायु हमारे पर्यावरण का अभिन्न अभित्र अंग है और यह जीवन के लिए अति आवश्यक है। प्राचिन काल में वायु प्रदूषण जैसी समस्या हमारे सामने नहीं थी, लेकिन आज बढ़ रहे औधोगीकरण व शहरीकरण के फलस्वरूप वायुमंडल में विषैली गैसों, पदार्थों, धूल के कणों आदि की उपस्थिति बढ़ी है । यह मनुष्यों, जानवरों और वनस्पतियों के लिए हानिकारक है। विज्ञान एवं प्रौधोगिकी विकास के कारण जहाँ अनेक सुख सुविधाये प्राप्त हु़ई हैं, वहीं मानव स्वास्थ के लिए अनेक जटिलताएँ एवं समस्यायेँ भी पैदा हो गयी हैं ।

आज वायु प्रदूषण मानव अस्तित्व के लिए एक बड़ा संकट बना हुआ है । हम बिना अन्न-जल के कुछ समय के लिए जिवीत रह सकते हैं, परन्तु प्राण वायु के बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकते । लोकोक्ति है कि ‘जब तक सांस, तब तक आस।’ इसलिए वेद में वायु को न केवल देवतुल्य माना गया है बल्कि जीवनदाता, मित्र व पालनकर्त्ता भी माना गया है । वेदों के अनुसार स्वच्छ वायु प्राणदायिनी औषधि के समान है, जिससे हमारा जीवन स्वस्थ एवं निरोग रह सकता है । इसीलिए ऋग्वेद में स्तुतिकर्ता उपासक वायुदेवता से प्रार्थना करता है –

‘‘वात आ वातु भेषजं शम्भू मयोभु नो हृदे ।
प्राण आयूषि तारिषत ॥’’
(ऋग्वेद, १०/१०/१८६)

वैदिक साधको ने साक्षात्कार कर लिया था कि पर्यावरण रक्षा ही स्वात्मरक्षा हैं –

‘‘यददो वात ते गृहे अमृतस्य निधिर्हित: ।
ततो नो देहि जीवसे ।
नू चित्रु वायोरमृतं वि दस्येत ॥’’
(ऋग्वेद, १०/१८६/३)

अर्थात हे वायु ! तुम्हारे पास अमृत की निधि (आक्सीजन) है, तुम ही जीवनशक्ति के दाता हो, तुम सब रोगों की औषधि हो । इस प्राणवायु को नष्ट न होने दे । इसका अभिप्राय यह है कि ऐसा कोई कार्य न करें गजिससे वायु में आक्सीजन की कमी हो।

पंचभूत तत्त्वों में आकाश भी है । यह आकाश हमारा वायुमंडल है। इस वायुमंडल में अनेक गैसें जैसे – आक्सीजन, कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, नाइट्रोजन आदि हैं। पृथ्वी की रक्षा कवच कही जाने वाली ओजोन परत वायुमंडल के ऊपर ही सुर्य की पराबैंगनी किरणों को छ्लनी की तरह रोक लेती है । इस वायुमंडल में जीवन प्रदायक तत्त्व हैं जिससे प्रजनन एवं जीवन सम्भव हैं जो कि अन्य ग्रहों के पास नहीं है। आज वायुमंडलीय प्रदूषण भी अन्य प्रदुषणों की तरह एक समस्या है । पर्यावरण सुरक्षा किसी एक व्यक्ति या क्षेत्र की समस्या नहीं है। इसके लिए सामूहिक प्रयत्नों की आवश्यकता है । हमारे ऋषि मुनियों ने पंचभूतों को हमारी धार्मिक भावना से जोड़कर उनके संरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया था। वैज्ञानिक एवं तकनीकी ज्ञान तथा औधोगिक क्रांति के कारण प्रकृति दोहन की होड़ से पर्यावरण संकट उत्पन्न हुआ है । यदि हम मंगलमय भविष्य साकार करना चाहते हैं तो हमें अपनी प्राचीन संस्कृति की उस सर्वमंगल कामना की ओर पुन: लौटना होगा, जिसमें कहा गया है-

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया: । सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दु:ख भाग भवेत ॥

सभी सुखी और स्वस्थ तभी रह सकते हैं, जबकि हमारा पर्यावरण स्वस्थ एवं स्वास्थ्यवर्धक हो ।

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यजुर्वेद में पर्यावरण संरक्षण एवं शुद्धता में अग्नि का महत्व सर्वाधिक है । अग्नि समस्त प्राणियों की रक्षा वैसे करता है, जैसे पिता पुत्र की ‘‘पावको अस्मभ्यम् शिवो भव’’ । इसीलिए ॠषि उसे पावमान कहते हैं । अग्नि की इन्हीं विशेषताओं के कारण यजुर्वेद में उनसे पर्यावरण की पूर्ण शुद्धि की कामना की गई है –

‘‘यत्रे पवित्रामर्चिष्यग्ने विततमन्तरा ।
ब्रह्रा तेन पुनातु मा ॥’’

अर्थात हे अग्नि तुम्हारे ज्वालाओं के मध्य में पवित्र ब्रह्रा उदित हुआ है, उससे मुझे पवित्र करो । अग्नि का प्रज्वलन समिधाओं से होता है। समिधा के रूप में वेदों में अनेक वृक्ष की लकड़ियाँ प्रयोग में लाने की बात कहीं गयी है । जिससे वातावरण शुद्ध होता है। उन वृक्षों में आम, बिल्ब, वट, पलाश आदि हैं । औषधियुक्त सर्वोत्तम समिधा तो गाय का गोबर का उपला है जिसमें अमोनिया, नाइट्रोजन व पोटाश जैसे अन्य तत्व पाये जाते हैं, यहीं नहीं गाय का गोबर विकिरण का रोधक भी माना जाता है ।

वेदों में न केवल इन पंच-तत्वों की, अपितु उनके अन्तर्गत आने वाले उन अन्य उपादानो की भी स्तुति की गई है, जो किसी न किसी रूप में जीवनोपयोगी है, जैसे वृक्ष, वनस्पति, वनोषधि, सुर्य, चन्द्रमा आदि । इसके पीछे दो कारण थे, एक तो वैदिक आर्य प्रकृति के अनन्य प्रेमी थे, दूसरा अपने चारों ओर का पर्यावरण स्वस्थ, साफ-सुथरा, संतुलित एवं मनभावन बना रहे, उसके साथ कोई अनावश्यक छेड़छाड़ न करें, इस कारण उन्हें निर्जीव होते हुए भी धार्मिक आस्था से जोड़ा गया ताकि भावी पीढ़ी उनके संरक्षण एवं संवर्द्धन के प्रति विशेष ध्यान दे, उन्हें आदर भाव की दृष्टि से देखें क्योँकि उनके बिना मानव-जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है । हमारी पुरातन संस्कृति में प्रकृति-प्रेम एवं प्रकृति-संतुलन की भावना इस तरह घुली-मिली है कि उसे एक दुसरे से पृथक नहीं किया जा सकता । तात्पर्य यह है कि हमारे जीवन के अभित्र अंग इन प्राकृतिक पदार्थो को जितना ऊँचा स्थान हमारी संस्कृति में प्राप्त है उतना शायद ही किसी और देश की धर्म संस्कृति में प्राप्त हो ।

पर्यावरण सन्तुलन बनाये रखने में पेड़-पौधों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है, परन्तु जनसंख्या वृद्धि ने विभित्र आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पेड़ों की द्रुतगति से कटाई को बढ़ावा दिया है । प्रकाश संश्लेषण विधि से पेड़-पौधे कार्बन डाई आक्साइड से ग्लूकोज बनाते हैं, विषाक्त गैसों को सोख लेते हैं । इस प्रकार वायुमंडल को प्रदूषण रहित बनाते हैं । हमारे ॠषि मुनियों ने वृक्षो के नीचे रहकर आत्मबोध प्राप्त किया था । प्रकृति के साथ मैत्री ही नहीं अपितु प्रकृति को सदा नमन करने की हमारी मान्यता रही है । वैदिक काल साए वनों, वनस्पतियों व वन्य जीवों का महत्व पहचाना गया और उन्हें जीवन में समुचित स्थान दिया गया । वनों एवं वृक्षो का हमारे जीवन से इतना गहरा संबन्ध है कि उन्हें ‘‘वन देवता’’ कहकर पुकारा गया और उनके बारे में अनेक गुणगान भरी प्रशस्तियाँ लिखी गयीं । वर्तमान युग में मनुष्य अपनी स्वार्थ लिप्सा के कारण जिस तरह वनों का विनाश कर रहा है, इसकी आशंका शायद वैदिक ॠषि को भी थी, जिस कारण वे वृक्षो के महत्व को प्रतिपादित करते हुए बतलाते हैं कि इस पृथ्वी पर वृक्ष तो सभी प्राणियों को जीवन और आनन्द प्रदान करने वाले हैं –

‘‘वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्सोमास इन्द्र मन्दिनश्चमुषद ।
प्रषामनीकं शक्या दविढद्विदव्स्वशर्मनंवे ज्योतिरार्यम ॥’’ (ऋग्वेद, १०/६६/११)

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यहीं नहीं हमारे धर्म ग्रन्थों में यहाँ तक कहा गया है कि – ‘‘एक वृक्ष का रोपण व पालन समाज को योग्य पुत्र देने के समान है तथा एक बाग लगाना एक न्यायी राजा बनने वाले पुत्र को जन्म देने के समान है ।’’ यह सब इसलिए कहा गया है, क्योँकि वृक्षो से हमे आक्सीजन, भोजन, जलवायु, भू-क्षरण को रोकने की क्षमता और लकड़ी प्राप्त होती है । वृक्ष लगाना न केवल आर्थिक दृष्टि से भी आवश्यक है।

सूर्य की रोशनी मनुष्य, मनुष्येत्तर प्राणियों एवं वनस्पतियों के लिए कितनी उपयोगी हैं, हमारे ऋषियों को इसका पूरा ज्ञान था । कल्याणदात्री सुर्य कि रश्मियों से पृथ्वी में अन्न एवं पौष्टिक शक्ति उपजती है। गौ, अश्व इत्यादि प्राणियों में भी उनसे उपयोगी बल एवं कर्मशक्ति का सृजन होता है । औषधियो व फलों को भी इन्हीं से शक्ति मिलती है । रोग निवारण आदि कर्मो में भी ये प्रभावी ढंग से उपयोगी सिद्ध होती हैं ।

‘‘ब्रह्रागामश्च जनयन्त ओषधीर्वनस्पतोंपृथिवी पवंर्ता अप: ।
सूर्य दिवि रोहयन्त: सुदानव आर्याव्रता विसृजन्तो अधिक्षमि ॥’’
(ऋग्वेद, १०/७४/४)

सूर्य अपरिमित ऊर्जा का स्रोत है । उसके बिना इस धरती पर मानव जीवन व अन्य जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती । इसलिए वैदिक ॠषि सूर्य को देवता मानते हैं – ‘‘सूर्य देवो भवह्ण । इस धरती पर अन्न, वनस्पति तथा जैविक प्रक्रिया तभी संभव हो सकती है, जब वर्षा हों इसीलिए भूमि उपलब्धियों की कामना के लिए वर्षा हेतू इन्द्र की स्तुति की गई है ।

‘‘आतत्त इन्द्रायव: पनन्ताभि या उर्व गोमन्तं तितृत्यान ।
सकृत्स्वं ! ये पुरूपुत्रां महीं सहस्रधारां वृहतीं दुदुक्षन ॥’’ (ऋग्वेद १०/७४/४)

वेदों में सामाजिक जीवन व उनकी उन्नति का पर्याप्त वर्णन है । वैदिक सूक्तों के अनेक मन्त्रों में चाहे वह विष्णु सूक्त का मन्त्र हो या पूषा सूक्त का मन्त्र हो यदि हम उनमें निहित भाव को अपने ज्ञान चक्षुओं से देखने का प्रयास करते हैं तो यह पाते कि एक स्वस्थ सामाजिक जीवन के उत्कर्ष का प्रामाण्य वैदिक मन्त्रों में सत्रिहित है । वैदिक धर्म यज्ञों से रोगकृमी तो नष्ट होते ही है, साथ ही वायुमंडल भी पवित्र होता है । वैदिक ॠषि शुद्ध वायु के महत्व को जानते थे जो हमारे लिए आरोग्यवर्धक तथा प्राणशक्ति को बल व ऊर्जा सम्पन्न बनाने वाला होता है । इसीलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि “यज्ञ शारीरिक स्वास्थ्य मानसिक शन्ति, भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार की समृद्धियाँ प्रदान करने में सहायक है। यज्ञ तो हजारों प्रकार की पुष्टि प्रदान करता है –

साहस्र: पोषस्तयु यज्ञमाहु: ।

वेद एवं यज्ञ का सम्बन्ध शरीर एवं प्राण की भाँति है । वेद शरीर है तो यज्ञ उसका प्राण है तथा ब्रह्रा ही इस वेदरूपी शरीर में रहने वाला आत्म तत्व है, जिसके आधार पर वेद एवं यज्ञ दोनों ही प्रतिष्ठित हैं । यज्ञ करते समय जब आहुति को अग्नि में समर्पित करके ‘इदन्न मम’ का पाठ करते हैं तब यह आहुति न केवल चेतन प्राणियों के लिए, अपितु जड़ जगत के लिए भी समान रूप में लाभकारी हो यही भाव यज्ञकर्ता की होती है । इसीलिए वह जल के लिए भी आहुति देता है और सूर्य के लिए भी देता है –

हविण्मतीरिमाआपो हविण्माँ अविवासति ।
हविण्मान्देवामध्वरो हविण्मां अस्तु सूर्य: ।।

यज्ञकुण्ड में आहुति देने का यही अभिप्राय है कि वह आहुति यहाँ से उठकर सम्पूर्ण वायुमंडल में फैल जाये और उसे सुगंधित तथा रोग रहित कर दे । यही आहुति दूषित जलों में प्रवेश करके उन्हें शुद्ध करती हुई अन्त में सुर्य को प्राप्त हो जाये ।

यज्ञ व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व की सर्वाधिक उन्नति का साधन है । आध्यात्मिक, आधिभौतिक आदि सभी उन्नतियाँ इससे प्राप्त होती हैं । इसी अभिप्राय से अथर्ववेद में यज्ञ को विश्वतोधार कहा गया है । अर्थात् इसकी

धाराएँ सबके लिए सब ओर जाती है ।
‘‘यज्ञं वै विश्वतोधारं सुविवांसो वितेनिरे ।’’

इस प्रकार यज्ञ से पर्यावरण की शुद्धि होती है । पर्यावरण संरक्षण के लिए यज्ञ की उपयोगिता यह कहकर बतायी गयी है कि इससे एक ओर जहाँ किटाणु नष्ट होते हैं वही दुसरी तरफ परस्पर सहयोग का वातावरण बनता है । यज्ञ का लक्ष्य केवल भौतिक वातावरण की शुद्धि न होकर व्यापक स्तर पर मनुष्य स्वभाव की शुद्धि भी है । अत: वेदों के आधार पर यज्ञ के स्वरूप को समझकर उसके द्वारा संरक्षण का कार्य करना उचित होगा । अगर वायु और जल शुद्ध हो तो, सम्पूर्ण मानव जाति सुख स्वास्थ्य और दिघार्यु प्राप्त कर सकती है, क्योँकि मंत्रों के अर्थो पर विचार करने से मानसिक प्रदूषण समाप्त होता है तो मंत्रों के उच्चारण से ध्वनि प्रदूषण समाप्त होता है । अग्नि में डाली गयी आहुतियाँ वायु एवं जल को शुद्ध करती हैं।

प्राचीन काल में यज्ञ से वातावरण शुद्ध था । परन्तु वर्तमान समय में वेदों के ज्ञानाभाव के कारण कर्त्तव्यों की क्षीणता, अधिकारों की मांग व अनुशासनहीनता बढ़ रही है। मनुष्य मल-मुत्र विसर्जन तथा अनेकों क्रिया-कलापों द्वारा जैवमण्डल को दुषित करता जा रहा है । इसलिए यह उसका नैतिक दायित्व बनता है कि वह प्राय: यज्ञ कर प्रदुषण दूर करता रहे । परन्तु यज्ञ न करने से पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है । सभी लोग अस्वस्थ हैं और अनेक बीमारियों से ग्रसित हैं। यदि इन सभी समस्याओं से स्वंय की रक्षा कननी है तो हमें पुन: वेदों का अनुकरण करना होगा।

भारतीय संस्कृति के बीज-मंत्र शुद्धि की भावना लिए हुए हैं । मनुष्य इस सृष्टि की श्रेष्ठतम कृति है । वह यदि प्रकृति का पोषण करे तो प्रकृति भी अपने खजाने को दोनों हाथों से लुटाने में संकोच नहीं करेगी । प्रकृति के नाना पदार्थों को हम आदर भाव दें और उन्हें जीवन का अंग मानकर नष्ट न होने दें तो वे हमारे लिए वरदान सिद्ध होंगे । इसीलिए वेदों में कहा गया है प्रकृति के शाश्वत नियमों का आदर करो, वे बड़ी मधुरता से जीवन में सहायक होते हैं –

‘‘ऋतेन ऋतं नियतमील आ गोरामा सचा मधुमत्पक्वमग्ने ।
कृष्णा सती रूशता धासिनैषा जामर्येण पयसा पीपाय ॥’’

पर्यावरण के सभी अंग-उपांग हमारे लिए उपादेय हैं । उनमें से किसी एक के अभाव में भी हमारा जीवन चक्र चल नहीं सकता । अत: सभी देवता व विद्वतजन से भी ऋषिगण प्रार्थना करते हैं कि वे इस धरा के मानव को अभयदान दें ।

समुद्र: सिन्थू रजो अन्तरिक्षमत एक पात्रनयित्रुरर्णव: ।
अहिर्बुध्नय: शृणवद्वचांसि मे विश्वे देवास उत सूरयो मम ॥ (ऋग्वेद , १०/१८/११)

अर्थात सागर, महानदी, पृथ्वी, आकाश, सुर्य, विधुत्, जलाशय एवं आकाश स्थित मेघ सभी हमें बढ़ाये तथा सकल विद्वतजन भी हमारी प्रार्थनाओ को सुनें ।

विश्व का प्रत्येक देश आज किसी न किसी प्रकार के पर्यावरण संकट से गुजर रहा है । वैज्ञानिक प्रगति एवं औधोगिक विकास के फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का जिस अनियंत्रित ढंग से शोषण हुआ है और प्रकृति के संचय कोष को लूटने की जबरदस्त होड़ मची है, उसके कारण पर्यावरण संतुलन सम्बन्धी अनेक समस्याये उठ खड़ी हुई हैं । हम अंपने स्वर्ग स्वरूपा धरती को नरक मय बनाने से कैसे बचाये, इस समस्या का जैसा समाधान वेद में हैं, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । पर्यावरण संरक्षण की इससे बढ़कर उदात्त कल्पना वेदों के अतिरिक्त विश्व के किसी भी साहित्य में देखने को नहीं मिलती । वैदिक ज्ञान से दुरी के कारण व्यक्ति, समाज, देश व मानवता के समाने तमाम समस्याऐं खड़ी हुयी हैं । अत: वैदिक ज्ञान को अपनाकर ही सभी समस्याओं से छुटकारा पाया जा सकता है ।