धार्मिक के साथ साथ औषधीय महत्व भी रखते हैं अशोक एवं कदम्ब का पेड़

डॉ हेमलता मीना

अशोक

अशोक का वृक्ष भारत में बहुतायत से मिलता है अशोक को मराठी में अशोक गुजराती में आसोपालव तथा बांग्ला में अस्पाल के नाम से जानते हैं ।अशोक को अंग्रेजी में अशोका अथवा सराका इंडिका भी कहते हैं ।अशोक का पेड़ ज्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप में मध्य और पूर्वी हिमालय में पाया जाता है। अशोक के फूल को उड़ीसा राज्य का राज्य फूल माना गया है।अशोक का पेड़ लगभग 30 -40 फीट तक लंबा हो सकता है । अशोक के पेड़ को हिंदू धर्म में पवित्र एवं हितकारी तथा मनोरथ पूरा करने वाला माना गया है । यह पवित्र वृक्ष जिस स्थान पर होता है ऐसा माना जाता है कि वहां किसी प्रकार का शौक नहीं होता व शांति रहती हैं। धार्मिक और मांगलिक कार्यों में अशोक के पेड़ के पत्तों का उपयोग हम सब जानते हैं कि कितना महत्वपूर्ण होता हैं।
अशोक का पेड़ आयुर्वेद में औषधीय महत्व भी रखता है। अशोक के पेड़ के सभी अंगों जैसे तना, फूल, फल, पत्ते, छाल आदि से दवाइयां बनती है और खास तौर से चर्म रोगों के लिए दवाइयां बनाने में अशोक के पेड़ का काफी उपयोग होता है। चेहरे पर मुंहासे पर अशोक की छाल को घिसकर लगाने से मुंहासे ठीक होने में मदद मिलती है। अशोक के पेड़ में एंटी डायरियल गुण भी पाए जाते हैं जिसकी वजह से डायरिया जैसी समस्याओं में यह फायदेमंद है ।इसी के साथ सांस रोगों में भी अशोक के पेड़ से बनी दवाइयां काम में ली जाती है।

अशोक से कई प्रकार की महिलाओं के उपयोग की औषधियां भी बनाई जाती है। इसके पत्तों व छाल में विभिन्न स्त्री रोग और मासिक धर्म की समस्याओं व दर्द को कम करने के गुण होते है जिससे इन रोगों के लिए औषधियां बनाई जाती है। अशोक की छाल से महिलाओं की त्वचा में निखार आता है जिससे तेलीय और बेजान त्वचा से छुटकारा मिलता है। इसी प्रकार अशोक की छाल मासिक धर्म में होने वाले भयानक दर्द और पेट में ऐठन को कम करता है ।अशोक की बनी हुई औषधियां वात को नियंत्रित करती है। अशोक की छाल का रस पाइल्स को भी कम करने में मदद करता है ,इसी प्रकार ल्यूकोरिया में भी अशोक की छाल को पानी में उबालकर पीने से राहत मिलती है । जिस प्रकार भारत में वट और पीपल को पवित्र वृक्ष माना गया है उसी प्रकार अशोक भी धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और पारिवारिक जीवन में अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में अशोक को शुभ एवं मंगलकारी वृक्ष के रूप में वर्णित किया गया है ।अशोक का वृक्ष पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।भारत में मिली कई प्राचीन मूर्तियों में अशोक के वृक्ष की अर्चना अंकित है ।बौद्ध धर्म के अनुयाई भी अशोक वृक्ष की पूजा करते हैं । कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध का जन्म अशोक वृक्ष के नीचे हुआ था ।

भगवान श्री राम ने अशोक के पेड़ से ही सीता जी के दर्शन की अभिलाषा की थी । कालांतर में राम भक्त हनुमान जी सीता माता को अशोक के पेड़ के नीचे देखा था और उसके बाद शोक की समाप्ति हुई थी ।इससे अशोक वृक्ष को शोक रहित करने वाला होने की बात चरितार्थ होती है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित पंचवटी में पांच वृक्षों में अशोक को शुभ वृक्ष माना गया है। आधुनिक युग में अशोक वृक्ष जहां अपना धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व बरकरार रखे हुए हैं वही इससे पर्यावरण संतुलन के लिए भी महत्वपूर्ण माना गया है ,साथ ही यह वृक्ष घरों में एक सजावटी पौधे के रूप में भी काफी लोकप्रिय उपयोगी माना जाता है। अशोक का वृक्ष सदा हरा भरा रहने वाला वृक्ष है। इसके पत्ते आम के पत्तों के समान लगते हैं। बसंत में इसमें नारंगी रंग के फूल आते हैं। अशोक के वृक्ष की शाखाएं देवदार के पेड़ की तरह हमेशा नीचे झुकी रहती है । इसके पत्ते प्रारंभ में सुंदर, कोमल, चमकदार,लाल रंग के सौंदर्य लिए होते हैं इनके नव कोपलों को ‘हेमपुष्पा’ कहा जाता है । हिंदू धर्म के साथ-साथ बोद्ध धर्म में भी अशोक के पेड़ को शुभदा का प्रतीक माना गया है । स्पष्ट है कि पीपल और बरगद के बाद अशोक का पेड़ भारत का काफी महत्वपूर्ण वृक्ष है।

कदंब
कदम्ब का वृक्ष 10 से 25 मीटर तक ऊंचा हो सकता है । यह भारत के शुष्क वनों में पाया जाता है। इसके फूल आकार में छोटे होते हैं। सूखने पर भूरे काले रंग के हो जाते हैं ।क़दम्ब कड़वा होता है। दर्द निवारक व शरीर के कई दोषो को हरने वाला माना जाता है ।इसके कच्चे फल ऐसीडिक ,गरम ,भारी कफ को बनाने वाला तथा रुचि कारक होते हैं। इसका फल थोड़ा एसिडिक होता है और वात को कम करने वाला तथा कफ पित्त को उत्पन्न करने वाला होता है ।कदम्ब का वानस्पतिक नाम निओलामार्कीया कदंबा है ।यह रूबीऐसी कुल का पौधा है ।भारत में कदम्ब को कई नामों से पुकारा जाता है। संस्कृत में इसे कदंब वृक्ष, हिंदी में कदम, उड़िया में इसको कदंबा ,गुजराती में कदम ,तेलुगु में कदम, बंगाली में कदम ,नेपाली में कदम ,मराठी में कदम इत्यादि नामों से जाना जाता है ।कदम के अनेक फायदे हैं ।आंखों की बीमारी के लिए भी कदम्ब काफी फायदेमंद है ।कदम के पत्तों का काढ़ा बनाकर गरारा करने से मुंह की बदबू और पायरिया में फायदा होता है ।इसी तरह मुंह में छालों से भी कदम के रस से राहत मिलती है ।अन्य बीमारियों में भी कदम का सेवन अत्यंत लाभकारी है खांसी मैं भी कदम का काढ़ा पीने से लाभ होता है ।शरीर की दुर्बलता दूर करने के लिए भी कदम लाभकारी है। पैरों की चोट और सूजन में कदम बहुत उपयोगी है। चोट लगने या सूजन होने पर कदम का उपयोग घाव को शीघ्र भरने व सूजन को कम करने में किया जाता है क्योंकि इसमें शोथ रोधी गुण होता है। घाव ठीक करने में भी कदम काफी सहायक है। इसी तरह पाचन को भी बहुत दुरुस्त करता है और अतिसार को नियंत्रित करता है ।त्वचा संबंधी बीमारियों में कदम से शीघ्र आराम मिलता है। आयुर्वेद में कदम के पत्ते, फूल ,जड़ सब का काढ़ा के रूप में उपयोग किया जाता है ।कदम का पेड़ हिमालय के दक्षिण पश्चिम घाट में भी पाया जाता है। सड़क के किनारे सजावटी पौधों के रूप में भी कदम्ब का उपयोग किया जा रहा है।
रूबीऐसी कुल के इस वृक्ष के फूल गेंद की तरह गोल होते हैं।कदम का तना 100 से 170 सेंटीमीटर व्यास तक का हो सकता है।

कदम्ब का जिक्र कई कवियों ने किया है। बाणभट्ट के प्रसिद्ध काव्य कादंबरी की नायिका ‘कादंबरी’ का नाम भी कदम्ब वृक्ष के आधार पर ही है। इसी तरह महाकवि माघ, महाकवि भारवि और भगभूती ने भी अपने काव्य में कदम्ब का विशिष्ट वर्णन किया है। इससे पता चलता है कि भारत में प्राचीन काल से ही कदंब का एक महत्वपूर्ण व पवित्र वृक्ष रहा है ।

कदम्ब के पत्ते बड़े होते हैं और उनमें गोंद भी निकलता है ।कदम के पत्ते महुए के पत्तों जैसे और इसके फल नींबू की तरह गोल होते हैं और फूल फलों के ऊपर ही लगते हैं ।फूल बहुत ही छोटे होते हैं लेकिन बहुत खुशबूदार होते हैं। फूलों की मधुर सुगंध से ऐसा माना जाता है कि एक समय में ब्रज का संपूर्ण वन और उपवन महकते थे ।कदम के वृक्ष में कई उपयोगी अल्कलॉइडस पाए जाते है।

गोवर्धन क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कदंब के पेड़ों की संख्या पाई जाती है आगरा, मथुरा के आसपास का ब्रज क्षेत्र कदम्ब के वृक्षों से भरा पड़ा है । राधा कृष्ण की अनेक लीलाएं इसी कदम्ब के वृक्ष से सुगंधित वातावरण में हुई थी। मध्यकाल में ब्रज की लीला स्थलों में अनेक रूपों में कदम्ब के वृक्ष बड़ी संख्या में लगाए गए जिन्हें कदमबाड़ी कहा गया। मधुबन में कदम्ब का वृक्ष भगवान कृष्ण को बहुत प्रिय था ,इसका कारण इस वृक्ष की कई विशेषताएं हैं ।यह वृक्ष बहुत जल्दी वृद्धि करता है। वर्षा ऋतु में से फूल आते हैं और डंठल पर पीले गुच्छे के रूप में यह फूल बहुत ही सुंदर लगते हैं ।बहुत ही मधुर सुगंध लिए ये फूल पूरे आसपास के वातावरण को सुगंधित बनाते है ।कहा जाता है कि बादलों की गर्जन के साथ इसके फूल अचानक खिल उठते हैं ।कदम्ब के फूलों से इत्र भी निकाला जाता है। इसके खट्टे मीठे फलों का उपयोग अचार चटनी आदि बनाने में किया जाता है ।इससे कई औषधियां भी बनती है। कदम्ब का पेड़ स्वास्थ्य के लिए किसी जादू से कम नहीं है । खांसी, जुकाम, बुखार जैसी मौसमी बीमारियों से निपटने के लिए भी है महत्वपूर्ण वृक्ष है कदम्ब। मधुमेह के रोगियों के लिए कदम के पत्ते औषधि के रूप में काम आते हैं।कदम्ब के फल, फूल, पत्ते, छाल सभी से स्वास्थ्य संबंधी अचूक फायदे होते हैं। कदम्ब की जड़ और छाल में मधुमेह विरोधी तत्व पाए जाते हैं ।पुराने समय में लोग इसकी छाल का इस्तेमाल घाव भरने के लिए भी किया करते थे। आयुर्वेद में कदम्ब की पत्तियों का इस्तेमाल थोड़ा गर्म कर सूजन या दर्द वाले स्थान पर बांधने में भी किया जाता है। कदम की पेड़ की छाल को पेस्ट बनाकर एंटी बैक्टीरियल एंटीफंगल क्रीम की तरह उपयोग किया जाता है ।कदम्ब के वृक्ष में लीवर के स्वास्थ्य के साथ अनेकानेक बीमारियों लिए बहुत फायदेमंद गुण होते है। कदम के पेड़ में कैंसर रोधी गुण भी पाए जाते हैं। कदम्ब का पेड़ देव वृक्षों की श्रेणी में आता है। भारत के सुगंधित पुष्पों में कदम्ब का पुष्प अत्यंत महत्वपूर्ण है। आयुर्वेद में कदम्ब की कई प्रजातियों का उल्लेख मिलता है ।चरक और सुश्रुत जैसे प्राचीन भारतीय विद्वानों ने कदम का कई स्थानों पर वर्णन किया है।

कदम्ब के कृष्ण प्रिय वृक्ष होने के कारण जन्माष्टमी को झूला सजाने में इसके फूल लगाए जाते हैं ।कदंब के कृष्ण से संबंध असाधारण है। कदम्ब की छाया में खड़े भगवान कृष्ण इंद्रजीत है ।सृष्टि के संयोजक और जगत के पालक माने जाते हैं ।एक मान्यता के अनुसार मथुरा के गोकुल में एक कदम्ब के वृक्ष के नीचे ही भगवान कृष्ण के अपनी माता को ब्रह्मांड के दर्शन कराए थे।

कदम के वृक्ष को सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपनी कविता में भी स्थान दिया है ।एक कविता में वह कहती हैं: “यह कदंब का पेड़ अगर मां होता यमुना तीरे। मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ।।ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम तो पैसे वाली ।किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।”

इसी प्रकार अकबर के समकालीन कवि रसखान ने भी अपने काव्य में कदम्ब का ज़िक्र किया है:
“मानुष हौं तो वही रसखानि बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरा चरौं नित नंद की धेनु मँझारन।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो धर्यौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तौ बसेरो करौं मिलि कालिंदी-कूल-कदंब की डारन॥”

अर्थात रसखान कहते हैं कि ‘यदि मुझे अगले जन्म में मनुष्य-योनि मिले तो मैं वही मनुष्य बनूँ जिसे ब्रज और गोकुल गाँव के ग्वालों के साथ रहने का अवसर मिले। अगले जन्म पर मेरा कोई वश नहीं है, ईश्वर जैसी योनि चाहेगा, दे देगा, इसलिए यदि मुझे पशु-योनि मिले तो मेरा जन्म ब्रज या गोकुल में ही हो, ताकि मुझे नित्य नंद की गायों के मध्य विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त हो सके। यदि मुझे पत्थर-योनि मिले तो मैं उसी पर्वत का एक भाग बनूँ जिसे श्रीकृष्ण ने इंद्र का गर्व नष्ट करने के लिए अपने हाथ पर छाते की भाँति उठा लिया था। यदि मुझे पक्षी-योनि मिले, तो मैं ब्रज में ही जन्म पाऊँ ताकि मैं यमुना के तट पर खड़े हुए कदम्ब वृक्ष की डालियों में निवास कर सकूँ।’