पद्मश्री कलीमुल्लाह का कमाल, अब लाल रंग में मिलेगा दशहरी आम
रवि प्रकाश मौर्य
नई दिल्ली। ‘मैंगो मैन’ के नाम से मशहूर कलीमुल्लाह खान के नाम कई रिकॉर्ड हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पास स्थित मलिहाबाद में रहने वाले कलीमुल्लाह खान आम का ऐसा पेड़ तैयार कर चुके हैं, जिसमें 300 तरह की प्रजाति के आम फलते हैं। मलिहाबाद वो जगह है, जहां के आम देश ही नहीं, विदेशों में भी बहुत पसंद किए जाते हैं। जब भी यहां के आमों का जिक्र होता है तो कलीमुल्लााह की चर्चा जरूर होती है।
दिलचस्प बात यह है कि कलीमुल्लाह लगभग हर साल आम की नई प्रजाति विकसित करते हैं और उसे एक नाम देते हैं। कोरोना काल में उन्होंरने आम की नई प्रजाति विकसित की और नाम दिया ‘डॉक्टसर आम’। इस साल उन्होंने दशहरी आम की नई किस्म विकसित की है, जिसे उन्होंने ‘दशहरी कलीम’ का नाम दिया है। आकार में यह बिल्कुल दशहरी जैसा ही है, लेकिन पकने पर यह हरा और लाल रंग का हो जाता है। यह किस्म पकने पर वर्तमान दशहरी से कहीं ज्यादा स्वादिष्ट और टिकाऊ भी है। दशहरी आम की इस किस्म को ‘रंगीन’ भी कहा जा सकता है। हालांकि इसे विकसित करने में कलीमुल्लाह खान को 16 साल का समय लगा।
बता दें कि पिछले कुछ समय से आम की लाल रंग की किस्में बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं। कुछ दशक पहले आम के मेलों में केवल भारतीय लाल रंग की किस्मों जैसे हुस्नारा, वनराज, सुरखा, सुरखा वर्मा, सिंदुरिया, गुलाब खास इत्यादि का बोलबाला था, लेकिन 80 के दशक में टॉमी एटकिंस, एल्डन और सेंसेशन जैसी रंगीन किस्मों को लखनऊ में सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर सबट्रॉपिकल हॉर्टिकल्चर और नई दिल्ली में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा संयुक्त राज्य अमेरिका से मंगाया गया।
लाल रंग की इन किस्मों के आकर्षण के कारण इनके पौधे विभिन्न सरकारी एजेंसियों और निजी नर्सरी द्वारा व्यापक रूप से बनाए जाने लगे। इस बीच इन किस्मों को नई किस्मों के विकास के लिए संकरण में पैरेंट के रूप में भी इस्तेमाल किया जा रहा है। आम्रपाली, दशहरी और अल्फांसो जैसी भारतीय किस्मों के साथ इन विदेशी आमों को नर या मादा के रूप में संकरित करके रंगीन किस्म में विकसित की गई है।
टॉमी एटकिंस और सेंसेशन जैसी विदेशी रंगीन आम की किस्मों का स्वाद सपाट होता है और यह भारतीय स्वाद के अनुरूप नहीं होते हैं। सुगंधित और मीठे आम भारतीय उपभोक्ताओं के बीच अधिक लोकप्रिय हैं। हालांकि लाल किस्मों का रंग उपभोक्ता को आकर्षित करता है और ग्राहक अधिक कीमत देने में भी संकोच नहीं करते हैं। विदेशी किस्में आमतौर पर कम मीठी होती हैं, लेकिन इन्हें लंबे समय तक संग्रहित किया जा सकता है।
इसी तरह दिल्ली के पूसा संस्थान ने लाल रंग की कई किस्में जैसे- पूसा अरुणिमा, पूसा प्रतिभा, पूसा श्रेष्ठ, पूसा ललिता और पूसा अरुणिमा जारी की है। धीरे-धीरे इनकी मांग बढ़ भी रही है।
सीआईएसएच द्वारा विकसित अंबिका और अरुणिका भी आजकल खूब चर्चित है। बेंगलुरू स्थित बागवानी संस्थान द्वारा विकसित अर्का अरुणा, अर्का अनमोल व अर्का पुनीत भी बागवान पसंद कर रहे हैं। विदेशी लाल रंग की किस्मों में टॉमी एटकिंस, सेंसेशन, ओस्टीन, लिली आदि प्रमुख है। पारंपरिक रंगीन किस्मों में हुस्ने आरा, वनराज सुरखा मटियारा, नाज़ुक बदन, याकुती और गुलाब खास शामिल हैं।
फिलहाल अम्बिका और अरुणिका की मांग पौधे के बौने आकर और किचन गार्डन के लिए उपयुक्त होने के कारण काफी बढ़ गई है। अरुणिका किस्म के पौधे आम्रपाली से भी छोटे आकार के होते हैं। इसी कारण से किचन गार्डन के लिए अरुणिका को अच्छी बौनी किस्मों में से एक माना जाता है। शुरूआत में नई रंगीन किस्मों के पौधे केवल शोध संस्थानों में उपलब्ध थे जहां इन किस्मों को विकसित किया गया था, लेकिन मांग बढ़ने के कारण इनके पौधों को प्राइवेट नर्सरी वाले भी काफी अधिक संख्या में बना रहे हैं। हालांकि रंगीन किस्मों की आड़ में नकली किस्मों की आपूर्ति करने की प्रथा भी खूब प्रचलित है।
कुल मिलाकर, बाजार में लाल फलों की अधिक मांग के कारण रंगीन किस्मों का उत्पादन करना किसानों के लिए भी बेहद लाभप्रद है। इन किस्मों को उच्च घनत्व में लगाया जा सकता है और पौधे केवल दो वर्षों में फल देना शुरू कर देंगे। अंबिका और अरुणिका के पेड़ों पर प्रूनिंग का अच्छा प्रभाव पड़ता है, इसलिए शाखाओं को ट्रिम कर के पौधे का आकार छोटा करके फल की उपज भी प्राप्त की जा सकती है।