सूखे और मिट्टी की खराब होती सेहत से बढ़ रहा कार्बन उत्सर्जन

नई दिल्ली: जलवायु विज्ञान से जुड़े शोधकर्ता जलवायु परिवर्तन का असर बढ़ाने वाले फीडबैक लूप के गंभीर होने के बारे में चिंतित हैं। गंभीर या पॉजिटिव फीडबैक लूप ऐसे तंत्र हैं जो किसी शुरूआती घटना के बाद तापमान को बढ़ाते हैं। उदाहरण के लिए, बढ़ते तापमान के कारण आर्कटिक में समुद्री बर्फ के पिघलने से गर्मी और बढ़ जाती है, क्योंकि पिघले हुए पानी में बर्फ की तुलना में कम एल्बेडो (सतह से परावर्तित प्रकाश का अंश) होता है।

दुनिया भर में तापमान में बदलाव और जलवायु परिवर्तन के बारे में ज्यादा स्पष्ट समझ हासिल करने के लिए, शोधकर्ता इन फीडबैक लूप को ध्यान में रखने पर जोर दे रहे हैं। एनवायरनमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में ऐसे फीडबैक लूप के बारे में बताया गया है जिसकी जलवायु से जुड़ी मौजूदा चचार्ओं में अनदेखा की जाती है झ्र सूखा, मिट्टी का सूखना और कार्बन डाइआॅक्साइड उत्सर्जन को जोड़ने वाला लूप।

मिट्टी में 80% स्थलीय कार्बन होता है। अध्ययन में कहा गया है कि सूखे और मिट्टी की सतह के फटने या सूखने की स्थिति में, यह कार्बन आॅक्सीडेशन के संपर्क में आता है, जिससे वायुमंडल में उत्सर्जित कार्बन डाइआॅक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है। इस फीडबैक लूप को समझने से वैश्विक तापमान में कमी लाने तथा सूखे को रोकने के उपाय तैयार करने में जरूरी मदद मिल सकती है।

सूखा और मिट्टी की सेहत

अध्ययन के मुख्य लेखक और टफ्ट्स विश्वविद्यालय में सिविल और पर्यावरण इंजीनियरिंग में प्रोफेसर और लुइस बर्जर चेयर फरशिद वेहेडिफार्ड कहते हैं, ‘जलवायु परिवर्तन में मिट्टी की सेहत बहुत अहम है, लेकिन अक्सर इसकी अहमियत को बहुत कम करके आंका जाता है। ‘यह भूमिका [जलवायु] के हिसाब से ढलने और इससे पार पाने दोनों में मददगार है।’अध्ययन बताता है कि सूखे के कारण मिट्टी की सेहत पर जटिल असर पड़ता है। इससे मिट्टी में पानी की मात्रा कम हो जाती है। मिट्टी का टूटना और उसका कटाव बढ़ जाता है। साथ ही, पौधों में पोषक तत्वों की उपलब्धता पर असर पड़ता है। सूखे के कारण मिट्टी के सूक्ष्म और बड़े वनस्पति (बैक्टीरिया, कवक, केंचुए वगैरह) पर भी तनाव बढ़ता है, जिससे मिट्टी के पोषक तत्वों का चक्र प्रभावित होता है और कार्बन का और ज्यादा नुकसान होता है।

वेहेडिफार्ड बताते हैं कि आपस में होने वाली इन जटिल अंतर्क्रियाओं को समझने से जलवायु परिवर्तन का अनुमान लगाते समय बड़ी गलतियों को कम करने और मिट्टी को उर्वर बनाए रखने की दिशा में कार्रवाई को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी। वे कहते हैं, ‘स्वस्थ मिट्टी कार्बन सिंक का बहुत बड़ा जरिया है। कवर क्रॉपिंग, कम जुताई और जैविक खेती जैसे तरीके मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ाते हैं, जिससे कार्बन को संग्रहीत करने की इसकी क्षमता बढ़ जाती है। कार्बनिक कार्बन की मात्रा को बढ़ाकर, मिट्टी ना सिर्फ कार्बन डाइआॅक्साइड को सोख लेती है, बल्कि इसकी संरचना, वायु प्रणाली, पानी को बनाए रखने की क्षमता और पोषक तत्व की मात्रा में भी सुधार करती है, जिससे फायदों का बेहतर चक्र बनता है।’ वे कहते हैं कि कार्बन के अलावा, स्वस्थ मिट्टी मीथेन और नाइट्रस आॅक्साइड जैसी दूसरी ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित करने में भी मदद कर सकती है।

अध्ययन बताता है कि फीडबैक लूप मीथेन उत्सर्जन को भी कम करेगा, लेकिन नाइट्रस आॅक्साइड के उत्सर्जन को बढ़ाएगा, जो ज्यादा गंभीर ग्रीनहाउस गैस है। एक पाउंड नाइट्रस आॅक्साइड वातावरण को एक पाउंड कार्बन डाइआॅक्साइड से 265 गुना ज्यादा गर्म करती है। अध्ययन के लेखकों का कहना है कि इस फीडबैक लूप के नतीजों को पूरी तरह समझने के लिए दूसरे विषयों से जुड़े अनुसंधान पर ध्यान देना जरूरी है।

सूखे के तह तक जाना

हालांकि, पिछले डेटा के विश्लेषण से पता चलता है कि सूखा पृथ्वी के मौसम चक्र का स्वाभाविक हिस्सा है। टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन ने स्थापित किया है कि जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रहे तापमान से लंबे समय तक और लगातार सूखे की स्थिति बनेगी। शोध से यह भी पता चलता है कि वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने से गंभीर सूखे की संभावना कम हो जाएगी।

गांधीनगर स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में सिविल इंजीनियरिंग और पृथ्वी विज्ञान के प्रोफेसर विमल मिश्रा कहते हैं कि सूखे को समझने के लिए बहुत ज्यादा महारत की जरूरत होती है। मिश्रा बताते हैं, ‘सूखे कई तरह के होते हैं- बारिश की कमी के कारण होने वाला मौसम संबंधी सूखा, मिट्टी की नमी खत्म होने पर कृषि संबंधी सूखा और नदियों, जलाशयों में पानी के कम प्रवाह के कारण होने वाला हाइड्रोलॉजिकल सूखा। आखिर में, ऊपर बताए गए सूखे के कारण होने वाला सामाजिक-आर्थिक सूखा होता है, जब सिंचाई के लिए कम पानी के कारण फसलों का उत्पादन कम हो जाता है, जिसका असर लोगों की आमदनी और कुछ भी खरीदने की उनकी क्षमता पर पड़ता है।

जनवरी 2024 में मिश्रा और उनकी टीम ने भारत में सूखे का एटलस प्रकाशित किया। इसमें राज्य, जिला और तालुका स्तर पर देश में सूखे का दस्तावेजीकरण किया गया। 1901 और 2020 के बीच डेटा विश्लेषण के आधार पर, एटलस बताता है कि सबसे गंभीर मानसून सूखा 2002 की गर्मियों के मानसून के दौरान हुआ था। इस आपदा के कारण 8.7 अरब डॉलर फसलों का नुकसान हुआ और 30 करोड़ लोग प्रभावित हुए। टीम ने नोट किया कि भारत ने हाल के दशकों में सूखे की अवधि, आवृत्ति और गंभीरता में बढ़ोतरी देखी है और रुझान जलवायु परिवर्तन के साथ बिगड़ती स्थितियों की ओर इशारा करते हैं।

राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनआरएससी), भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के रिमोट सेंसिंग एप्लिकेशन क्षेत्र के उप निदेशक के श्रीनिवास बताते हैं कि भारत में सूखे की निगरानी अनिवार्य और असर वाले संकेतकों पर आधारित है। कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के सूखा प्रबंधन मैन्युअल में इसका उल्लेख है। बारिश का चक्र बिगड़ना, मानकीकृत बारिश सूचकांक (एसपीआई) और सूखे जैसे अनिवार्य संकेतकों का इस्तेमाल पहले सूखे के ट्रिगर के रूप में किया जाता है। इसके बाद कृषि, रिमोट सेंसिंग, मिट्टी की नमी और हाइड्रोलॉजिकल कारकों पर आधारित असर वाले संकेतकों का विश्लेषण किया जाता है जो सूखे और इसकी गंभीरता का आकलन करने में मदद करते हैं। सूखे को गंभीर या मध्यम के रूप में तय किया जाता है, जो दूसरे ट्रिगर को शुरू करता है, जिससे नुकसान और क्षति की सीमा तय करने के लिए क्षेत्र में सत्यापन की प्रक्रिया होती है।

श्रीनिवास ने बताया कि राष्ट्रीय कृषि सूखा निगरानी एवं आकलन प्रणाली (एनएडीएएमएस) इसरो द्वारा विकसित की गई है और यह 1990 से काम कर रही है। इसके बाद, इस पद्धति को नियमित निगरानी के लिए कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय को हस्तांतरित कर दिया गया तथा इसमें और सुधार किया गया है। एनआरएससी में फसल मूल्यांकन प्रभाग के प्रमुख करुण कुमार चौधरी बताते हैं कि एनएडीएएमएस भारत के सबसे ज्यादा सूखाग्रस्त क्षेत्रों में महीने के आधार पर सूखे की निगरानी करता है और उप-जिला स्तर पर डेटा उपलब्ध कराता है। 2012 से, एनएडीएएमएस को कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के महालनोबिस राष्ट्रीय फसल पूवार्नुमान केंद्र द्वारा लागू किया गया है।

मिश्रा कहते हैं कि हालांकि, जैसा कि सूखा मैन्युअल में बताया गया है कि कई भारतीय राज्य पारंपरिक निगरानी प्रणाली (जिसे अन्नेवारी/पैसेवारी/गिरद्वारी पद्धति के रूप में जाना जाता है) का पालन करना जारी रखे हुए हैं, जिसमें पैदा की गई फसलों की कीमत को देखा जाता है। साथ ही, कई डेटासेट और मूल्यांकन विधियां सूखे के विश्लेषण को और जटिल बनाती हैं। वे कहते हैं, ‘लोग सोचते हैं कि सूखा सिर्फ सूखे क्षेत्रों में होता है, लेकिन यह सच नहीं है। आप मेघालय के चेरापूंजी में भी सूखा देख सकते हैं, जो बहुत ज्यादा बारिश के लिए जाना जाता है।’ इसके अलावा, मिश्रा के शोध से यह भी पता चलता है कि मानवजनित गर्मी और ग्रीष्मकालीन मानसून में बदलाव से भारत में अचानक सूखे का खतरा बढ़ जाएगा। यह मिट्टी की नमी में तेजी से कमी के कारण होने वाला सूखा है जिससे खेती और सिंचाई की मांग पर विनाशकारी दुष्प्रभाव पड़ेगा।

चौतरफा समाधान

वेहेडिफार्ड कहते हैं कि पहचाने गए फीडबैक लूप और भारत में सूखे की बढ़ती चुनौतियों के मद्देनजर, समय की मांग है कि जलवायु के हिसाब से खेती के तरीके अपनाए जाएं। वे बताते हैं, ‘इसमें अलग-अलग फसलें उगाना, कृषि वानिकी और सटीक खेती की तकनीकों का एकीकरण शामिल है, ताकि पानी और पोषक तत्वों का ज्यादा से ज्यादा से इस्तेमाल किया जा सके। इस तरह, भूमि पर दुष्प्रभाव और मिट्टी के सूखने की आशंका कम हो।’अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्ण कटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान  के प्रधान वैज्ञानिक और रणनीतिक सलाहकार श्रीनाथ दीक्षित कहते हैं कि आगे के रास्तों में पारंपरिक तरीकों और आधुनिक तकनीकों को एक साथ लाना शामिल होना चाहिए, जो मिट्टी को फायदा पहुंचाए और सूखे के हिसाब से हर क्षेत्र की क्षमता के बारे में हमारी समझ को बेहतर करे। लंबे समय से ऐसे अध्ययन कर रहा है जो फसल के अवशेषों को मिट्टी में शामिल करके मिट्टी के कार्बनिक कार्बन को बनाए रखने और बढ़ाने पर ध्यान देते हैं। हाल ही में आए एक पब्लिकेशन में, संस्थान के शोधकतार्ओं ने दिखाया है कि पारंपरिक खेती और न्यूनतम जुताई वाली खेती दोनों में फसल अवशेषों को मिला देने से मिट्टी के कार्बनिक कार्बन में बढ़ोतरी होती है और मिट्टी की सेहत में सुधार होता है। लेखकों का कहना है कि इससे फसल अवशेषों को जलाने से भी रोका जा सकता है, जिससे उत्सर्जन और खेती के अपशिष्ट में कमी आती है। जबकि अध्ययन में मक्का-चना अनुक्रमिक और मक्का-अरहर अंतर-फसल पर ध्यान दिया गया, यह अवशेषों और गीली घास का इस्तेमाल करके मिट्टी को वायुमंडल के ज्यादा तापमान से बचाने की जरूरत को रेखांकित करता है।

चौधरी ने यह भी बताया कि एनआरएससी की टीम भौगोलिक और खेती के नजरिए से सूखे के आकलन को और ज्याद ा खास बनाने पर काम कर रही है। उन्होंने कहाकि हम यह देखने के लिए तरीके में सुधार कर रहे हैं कि क्या हम जिले से तालुका या ग्राम पंचायत स्तर तक जा सकते हैं। फिलहाल, सूखे की रिपोर्ट फसलों के हिसाब से सामान्य होती है और आकलन को फसलों के हिसाब से खास बनाने के लिए और ज्यादा शोध की जरूरत है। अगर हम कहते हैं कि एक जिला सूखा प्रभावित है और उस क्षेत्र में दो फसलें उगाई जाती हैं, तो सूखे के असर से बचने को लेकर उनमें क्या अंतर है? यह सूखा प्रबंधन और इसके दुष्प्रभावों का आकलन करने के लिए भी महत्वपूर्ण जानकारी है। श्रीनिवास बताते हैं कि केंद्र सरकार सूखा प्रभावित क्षेत्रों की पहचान करने के लिए लंबी अवधि के विश्लेषण पर भी ध्यान दे रही है, ताकि उसके अनुसार इससे पार पाने के उपायों को लागू किया जा सके। लेकिन सबसे अहम बात यह है कि वे पूर्व चेतावनी प्रणाली तैयार करने पर काम कर रहे हैं जो बिगड़ती परिस्थितियों पर तुरंत कदम उठाने में मदद कर सकती है।

इससे लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र को बहुत फायदा होगा। कार्यकर्ता, शोधकर्ता और सोसाइटी फॉर प्रमोटिंग पार्टिसिपेटिव इकोसिस्टम मैनेजमेंट  के संस्थापक सदस्यों में से एक केजे जॉय ने जोर देकर कहा कि पूर्व चेतावनी प्रणाली की तुरंत जरूरत है। महाराष्ट्र में सूखा प्रभावित किसानों के साथ काम करने के बाद जॉय कहते हैं कि किसानों को अपनी फसल की योजना बनाने के लिए बारिश की जानकारी चाहिए होती है। वे कहते हैं, ‘सिर्फ बारिश की मात्रा ही मायने नहीं रखती। दो बारिश के बीच अंतर भी मायने रखता है। जब यह अंतर बढ़ता है, तो यह किसानों के लिए विनाशकारी नतीजे देता है।’जॉय कहते हैं कि सूखे का आकलन डेटा पर ज्यादा आधारित होना चाहिए तथा मानक प्रोटोकॉल का इस्तेमाल करते हुए गांवों में मौसम संबंधी पैरामीटर एकत्र किए जाने चाहिए, जिससे किसानों को बेहतर फैसले लेने में मदद मिल सके।

वेहेडिफोर्ड कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से पार पाने और इस हिसाब से मिट्टी की सेहत की अहम भूमिका के बारे में आम जनता, किसानों और नीति बनाने वालों को जागरूक करना भी जरूरी है। वे कहते हैं, ‘हमें स्थानीय समुदायों को अनुकूलन रणनीतियों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने में शामिल करना चाहिए जो खास स्थानीय जरूरतों को पूरा करते हैं और कमजोरियों को दूर करते हैं। शिक्षा और संसाधनों के जरिए समुदायों को टिकाऊ तरीकों को अपनाने के लिए मजबूत बनाना, बदलती जलवायु में सूखे, मिट्टी के सूखने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के बीच परस्पर क्रिया के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने में महत्वपूर्ण रूप से योगदान दे सकता है।

शर्मिला वैद्यनाथन

मोंगाबे