घाघ की कहावतें : कच्चौ खेत न जोतै कोई !

खेती-किसानी के लिए महाकवि घाघ की कहावतें जगत प्रसिद्ध हैं। इस बारे में किसानों की आम धारणा ये है कि वैज्ञानिकों के अनुमान गलत हो सकते हैं, लेकिन घाघ की कहावतें कभी गलत नहीं होतीं। आइए जानते हैं उनकी बोवनी और उपज संबंधी कुछ कहावतों के बारे में…

 

कच्चौ खेत न जोतै कोई।
नई तो बीज न अंकुरा होई।।
भावार्थ: घाघ कहते हैं कि कच्चा खेत किसी को नहीं जोतना चाहिये नहीं तो बीज अंकुरित नहीं होता है। कच्चे खेत से तात्पर्य फसल बोने के पूर्व की गई तैयारी जैसे जोतना, गोड़ना, खाद मिलाने आदि मृदा-संस्कार से है।

इतिवार करे धनवंतर होय, सोम करे सवाया फल होय।
बुध, शुक्र, गुरु भरे बखार, शनि, मंगल, बीज न आवे द्वार।।
भावार्थ: अच्छी फसल के लिए रविवार, सोमवार, बुधवार, शुक्रवार या गुरुवार में से किसी भी दिन बीज बोएं तो पैदावार अच्छी होती है। अगर शनिवार और मंगलवार को बोनी प्रारंभ करते हैं तो फसल अच्छी नहीं होती।

जरयाने उर कांस में, खेत करौ जिन कोय।
बैला दोऊ बैंच कें, करो नौकरी सोय॥
भावार्थ: कंटीली झाड़ियों और कांस से युक्त खेत में खेती नहीं करनी चाहिये अन्यथा उससे क्षति होगी। इससे बेहतर है कि दोनों बैल बेचकर नौकरी करें और निश्चिंत होकर सोवें।

अक्का कोदों नीम बन, अम्मा मौरें धान।
राय करोंदा जूनरी, उपजै अमित प्रमान॥
भावार्थ: जिस वर्ष अकौआ, कोदों, नीम, कपास, और आम अधिक फूलें, उस वर्ष धान, राय, करोंदा तथा ज्वार अधिक मात्रा में पैदा होते हैं।

आलू बोबै अंधेरे पाख, खेत में डारे कूरा राख।
समय समय पै करे सिंचाई, तब आलू उपजे मन भाई।।
भावार्थ: आलू कृष्ण पक्ष में बोना चाहिए और खेत में कूड़ा, राख की खाद डालकर सिंचाई करनी चाहिए। ऐसान करने से आलू भारी मात्रा में पैदा होता है।

हरिन फलांगन काकरी, पेंग, पेंग कपास।
जाय कहौ किसान सें, बोबै घनी उखार।।
भावार्थ: घाघ, घाघिनी से कहते हैं कि हिरण की छलांग की दूरी पर ककड़ी बोनी चाहिए, लेकिन कपास कदम-कदम की दूरी पर बोना चाहिए, ऊख (गन्ना) को घना बोना चाहिए, ऐसा किसान से जाकर कहना।

मघा पूर्वा लागी जोर, उर्द मूंग सब धरो बहोर।
बऊत बनै तो बैयो, नातर बरा-बरीं कर खैयो।।
भावार्थ: मघा तथा पूर्वा नक्षत्र में अधिक वर्षा होने पर कृषि का नाश हो जाता है, ऐसी स्थिति में उड़द तथा मूंग सब हिफाजत से रख लेना चाहिए। बोते बन सके तो बोना, अन्यथा इन्हीं मूंग की बड़ी-बरा खाकर संतोष कर लेना क्योंकि अन्य उपज की आशा नहीं है।

नित्तई खेती दूजै गाय, जो ना देखै ऊ की जाय।
खेती करै रात घर सोवै, काटै चोर मूंड़ धर रोवै॥
भावार्थ: नित्य ही खेती और गाय को जो स्वयं नहीं देखते हैं उसकी खेती या गाय चली जाती है। जो खेती करके रात्रि में घर पर सोते हैं, उनकी खेती चोर काट ले जाते हैं, और वह सिर पीटकर रोते हैं अर्थात कृषि कार्य और गौ सेवा स्वयं करनी चाहिये, दूसरों के भरोसे नहीं।

असाड़ साउन करी गमतरी, कातिक खाये पुआ।
मांय बहिनियां पूछन लागे, कातिक कित्ता हुआ।।
भावार्थ: आषाढ़ और सावन माह में जो गांव-गांव में घूमते रहे तथा कार्तिक में पुआ खाते रहे (मौज उड़ाते रहे) वह मां, बहिनों से पूछते हैं कि कार्तिक की फसल में कितना (अनाज) पैदा हुआ अर्थात जो खेती में व्यक्तिगत रुचि नहीं लेते हैं, उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता है।