मटर की फसल पर रस्ट रोग का ख़तरा
लखनऊ: रस्ट रोग मटर की फसल के लिए एक गंभीर समस्या है, जो यूरोमाइसेस पिसी नामक फफूंद के कारण होता है। यह रोग पौधों की पत्तियों पर हल्के पीले रंग के दाग से शुरू होकर गहरे पीले, लाल-भूरे और बाद में काले रंग के फफोले जैसी संरचनाओं में बदल जाता है। यह न केवल उपज को कम करता है, बल्कि फसल की गुणवत्ता पर भी बुरा असर डालता है।
रस्ट रोग का जीवनचक्र यौन और अलैंगिक दोनों चरणों से गुजरता है। यह रोग सर्दियों में पौधों के मलबे में टेलियोस्पोर के रूप में जीवित रहता है और वसंत में सक्रिय होकर संक्रमण फैलाता है। बढ़ते मौसम के दौरान यह यूरेडिनोस्पोर नामक बीजाणुओं का उत्पादन करता है, जिससे फसल में और अधिक संक्रमण फैलता है।
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वैज्ञानिकों ने मटर की ऐसी किस्में विकसित करने पर जोर दिया है, जो रतुआ रोग का सामना कर सकें। यह टिकाऊ और पर्यावरण के अनुकूल तरीका है। रोग के लक्षण दिखने पर प्रॉपिकोनाजोल @1 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिनों के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें। ध्यान रखें कि फली तोड़ने से कम से कम 10 दिन पहले यह छिड़काव किया जाए।
मटर को बार-बार एक ही जगह न लगाएं, बेहतर है कि फसल चक्र अपनाएं।संक्रमित पौधों के अवशेष हटा दें। पौधों को उचित दूरी पर लगाएं ताकि वायु का परिसंचरण बेहतर हो। मटर के किसानों के लिए यह जरूरी है कि वे इस रोग के लक्षणों को समय रहते पहचानें और सही प्रबंधन उपाय अपनाएं। इससे न केवल फसल की उपज बढ़ेगी, बल्कि गुणवत्ता भी बेहतर बनी रहेगी।